जांच एजेंसियों के बर्ताव से जघन्य अपराधियों को बल मिला

कोई भी सामाजिक अनुबंध समाज में अपराध को समाप्त नहीं कर सकता है। इतिहास ने उन अपराधियों के बीच निरंतर शत्रुता दिखाई है जो सामाजिक व्यवस्था को भग करते हैं और जो इसे बनाए रखने का प्रयास करते हैं । अपराधों और अपराधियों से निपटने वाले कानून, बिभिन्न रुपों में ब्याप्त ऐसे प्रभावशाली तन्त्रों से निकलते हैं, जिन पर सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने की ज़िम्मेदारी होती है, और जो लोगों को उनके रोजमर्रा के जीवन में इस विश्वास के साथ चलने की आजादी देता है कि उन्हें शासन व्यवस्था की सुरक्षा प्राप्त है। किसी भी आधुनिक समाज को राज्य और इसकी मशीनरी द्वारा ऐसे अपराधियों जो सामाजिक शांति को भंग करते हैं, के साथ मिलकर या उनका समर्थन कर लोगों के व्यक्तिगत अधिकार एवं उनके व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं का हनन को बर्दाश्त नहीं करना चाहिए।
प्रायः, हमारे गणतंत्र ने ऐसे अपराधों को देखा है, जिसकी कटु बर्बरता ने हमारे सामूहिक विवेक को झकझोर दिया है। इन जघन्य अपराधियों के प्रति हाल के दिनों में जिस तरह का बर्ताव सरकारी जांच एजेन्सियों का रहा है, उससे उन अपराधियों को अवश्य ही बल मिला है।

हिंसा के रंग

2014 के बाद से देश में जाति के आधार पर निशाना बनाने की घटनाओ में तेजी से वृद्धि हुई है। दलित अक्सर उच्च जाति की क्रूरता के शिकार होते हैं। अन्यायपूर्ण जाति संरचना एवं अक्षम्य मानसिकता ऐसे अपराधों, को बिना दण्ड के, बढ़ाने में सहायक होती है। अपराधी मानते हैं कि सरकारी तन्त्र, सत्ता में निहित जाति संबद्धता के कारण सदैव उनको बचाने का काम करेगी। इसी मानसिकता के कारण दलितों के सार्वजनिक लिंचिंग और यौन उत्पीड़न के बिस्मरित प्रकरण तथा अपराधियों के बिना सजा के बच निकलना संभव होता है। जाति और गरीबी का आपस में गहरा संबन्ध होता है। जो लोग जाति संरचना के सबसे नीचे तल पर होते हैं वे आम तौर पर गरीबी में डूबे हुए होते हैं। उनके पास उन सभी संसाधनों का अभाव होता है जो न्याय पाने के लिए आवश्यक होते हैं।

फिर धार्मिक अभिरुचि के आधार पर अपराधों का प्रश्न आता है। एक बहुसंख्यकवादी राज्य में अल्पसंख्यकों को राज्य के सुरक्षा की आवश्यकता होती है क्योंकि प्रचलित बहुसंख्यक संस्कृति साधारणतया अपना प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश में रहती है और हिंसक प्रतिशोध घटनायें अक्सर इस प्रभुता को ब्यक्त करती है। बहुसंख्यकीय फ़र्मान न मानने पर निर्दोष पीड़ितों पर हमला किया जाता है। उनके पहनावे और शारीरिक पहचान के लिये भी उन पर हमले होते हैं। उन्हें सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाता है और उनके पूर्वजों के कथित कृतियों के लिये त्रासित किया जाता है। इस पूरे प्रकरण में, अपराधी को एक बहुसंख्यक राष्ट्रवादी भावना के प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है।

तीसरा पहलू एक विशेष विचारधारा को उन सभी पर थोपने की कोशिश है, जो या तो उस विचारधारा से असहमत होते हैं या खुले तौर पर उसका विरोध करते हैं। यहां हिंसा की राजनीति हावी हो जाती है। राजनीतिक वर्ग, असंतोष की आवाज को दबाने के लिए हिंसा को एक हथियार के रूप में उपयोग कर भय पैदा करता है ताकि विरोधी स्वरों को दबाने और चुपचाप अनुपालन का संदेश सर्वत्र पहुचाया जा सके। यही कारण है कि देश को सांस्कृतिक, धार्मिक एवं राजनीतिक हिंसा का सामना करना पड़ता है।

कानूनी प्रणाली की स्थिति

विधि शाशन को बनाये रखने के लिये कानूनी प्रणाली को कानून की अपेक्षाओं के अनुरूप खुद को तैयार करना होगा । एक ऐसी कानून प्रणाली जो अपराधों की बिना भेदभाव जांच करे, जो निष्पक्ष हो और दोषियों को दंडित करे। लेकिन लगता है कि कानूनी व्यवस्था ने प्रभावशाली तन्त्र की चापलूसी कर अपने आपको कानून से दूर कर लिया है। हाल की त्रासदियों ने राज्य की प्रकृति और जांच एजेंसियों की भूमिका के बारे में संदेह पैदा किया है। अगर ऐसा नहीं है तो कोइ सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा माने हुए उस अपराध का क्या स्पष्टीकरण देगा जिस अपराध को जनता की आँखों के सामने किया गया हो और न्यायालय षड्यन्त्र एवं षड्यन्त्रकारी दोनों की पहचान करने में असमर्थ हो? उस जांच एजेंसी के आचरण की व्याख्या कैसे हो जो एक 19 वर्षीय पीड़िता का रात के अन्धेरे में चुपचाप, उसके परिवार को बताए बिना, अंतिम संस्कार करती हो? हम उस एजेंसी की धारणा से कैसे सहमत हों जो बाबजूद् पीडिता के मृत्युकालिक कथन, कि उसका सामूहिक बलात्कार हुआ है, ये कहती हो कि उसका बलात्कार नहीं किया गया है?

कठुआ के बलात्कार एवं मोहम्मद अख़लाक के लिन्चिन्ग जैसे अपराधों के उपर प्रभुत्व की राजनीति ये दरशाती है कि राज्य की मशीनरी पीड़िता के नहीं बल्कि अपराधियों के पक्ष में खडी थी। किसी भी जांच एजेंसी के पास जांच को भुनाने की क्षमता होती है: रिकॉर्ड में हेरफेर करना, मुख्य गवाहों के बयान दर्ज करने में विफल होना, जानबूझ कर मामले के लिए महत्वपूर्ण सबूत एकत्र नहीं करना, और यह सुनिश्चित करना कि अभियुक्तों की पुष्टि करने वाले गवाह अदालत में पेश ना हों, ये सब इसके उदाहरण हैं। अदालत खुद को असहाय पाती है और कभी-कभी खुद और कानून की मदद नहीं करने का विकल्प चुनती है। जब राज्य, जांच एजेंसियों और आरोपियों के बीच सांठगांठ आदर्श बन जाते हैं, तो बलि कानून की चढती है।

भारत गणराज्य के लिए यह एक वेक-अप कॉल है। हमारे कुछ दुर्बल संस्थानों ने, अपने खुले पक्षपातपूर्ण रवैये के कारण, इस घृणित स्थिति को जन्म दिया है। हमारी न्यायिक व्यवस्था ही एकमात्र ऐसी संस्था है जो इस तरह के पतनकारी स्थितियां, जिनकी वजह से नागरिक देश की व्यवस्थाओं में अपना विश्वास खो देते हैं, से निपटने में सक्षम है। हमारा आने वाला भविष्य कैसा होगा यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हमारी अदालतें में एक दोषी को दोषी कहने का साहस है या नहीं।